मेरे घर में कोई आइना नहीं है,
क्योकि मेरे अक्ष को देखने की मुझमे हिम्मत नहीं है,
हलाकि वे अक्सर मुझे देख जाया करता है आइनो की दुनिया में,
जिसका दरवाजा कभी खुलता है काली कढ़ाई में उबलते तेल में, मुसलसल दौड़ती हुई मेट्रो की खिड़किओं में, सड़क के गड्ढो में जमे बरसात के पानी में, स्याह रात सी खामोश मेरे दफ्तर में कड़ी कार्बन फाइबर की दीवार में,
मगर जब कभी वो मुझे उस पर से देखता है, मै सहम जाता हु,
क्योकि मुझे दखाई देती हैं दो आँखे जो बचपन से आजतक बिलकुल भी नहीं बदली,
मगर बदल गया है उन आँखों के देखने का नजरिया,
पेशानी पर उभर आई है कुछ फिकरमंद सी लकीरें,
सूज गए हैं यह फफोते और ताबासूम अब सिर्फ दिल में रह जाती है,
लबो पर नहीं आती,
मैं उससे पूछता हु कौन हो तुम, वो मुझसे वही सवाल दोहराता है,
जवाब शयद हम दोनों के अंदर हैं,
मगर अब सुख गया फुर्सत का समंदर हैं,
आजकल सवाल सिर्फ सवाल रहजाते है,
यह सवाल मेरा सुरते हाल सुनते हैं,
ये मुझसे पूछते है क्यों गायब तुम्हारे आँखों की शरारते हैं, लहजे की वो हरारत है, क्यों मनमर्जी लगती हिमाकत है, क्या इस पेशे की वही विरासत हैं,
की बस आफत आफत आफत हैं,
अब चैन और सुकून का लम्बा इंतजार होता हैं,
जो कभी मुफ्त था उसका व्यापर होता हैं,
मैं उससे नजरें चुरा लेता हु ज्यादा देर देख नहीं पाता हु,
जो रास्ता आसान है फिर वहीँ मूड जाता हु,
क्योकि डर लगता है यह सोच के, के वक्त ना तो रुखता ना ही लोटता हैं रुखति हैं तो बस सांसे,
और कॉन्क्रीट के इस जांगले में कैद ये सांसे कहीं जाया तो नहीं हो रहीं,
क्या ये कही और खर्च होने के लिए बक्शी गई हैं,
क्या मेरा मकसद कुछ और हैं,
या फिर ये दौर ही गुलामी का दौर हैं,
मेरे कमरे में कोई आइना नहीं हैं,
लेकिन एक दिन- एक दिन, मैं माजी का टिकट कटा के,
कोशिशों के पहियों पे चलने वाली होसले की ट्रैन पर सवार हो जाऊँगा ताकि यादो के स्टेशन पे उतर के जंग लगी बैंच पे बैठे अपने बचपन को उठा लाऊ अपने साथ इस शहर में और लगा दू अपने कमरे में एक आइना,
ताकि गायब हो जाये पेशानी की वे लकीरे, फिर कभी न सूजे ये फफोटे, लोट आये आँखों की वो शरारत, लहजे की वो हरारत और लबो पे आने को तरसती वो ताब्बसम।
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April 24, 2023